गुरुवार, 10 जनवरी 2008

नए साल में कुछ नया हो जाये.....(व्यंग्य )

नया साल आ गया धूम धड़ाके से. गया पिछ्ला साल. गयीं पिछली साल की नीचताएं , धूर्त्ताएं ,अश्लीलताएं. पिछले साल अपराधों का हमारा ग्राफ हांलांकि थोड़ा सुधरा लेकिन बलात्कार , घोटालों आदि के क्षेत्र में हमारी प्रगति थोड़ी कमज़ोर ही रही . बम विस्फोट के धमाके सारा कवरेज़ खा गए. कभी बनारस , कभी मुम्बई लोकल ट्रेन , कभी अदालतों में बम फटते रहे. लेकिन क्या हम बेसाख्ता अमेरिका के ऑर्केस्ट्रा पर थिरकते रहे. उधर हमारे लाल सलाम साथी गुस्से में लाल-पीले होते रहे. हमारी दिली तमन्ना है की हम अपराधों के क्षेत्र में भी विकसित देशों के सम्मुख खड़े हो सकें. हमारा प्रयास जारी है. हम इस क्षेत्र में पूर्णतः आत्मनिर्भर होना चाहते हैं. निठारी कांड से काफी आशा बँधी है. अब वह दिन दूर नहीं है जब दुनिया हमारा लोहा जनसंख्या बढ़ाने , भ्रष्टाचार और काहिली के साथ-साथ अपराधों की निक्रष्ट्ता में भी मानेगी.
सरकार और वामपंथियों की कबड्डी भी बड़ी मजेदार रही. पाला बदल कर साँस तोड़कर एक दूसरे को मारते जिलाते रहे. उधर तारे ज़मीन पर थे इधर यूपीए गुजरात में ज़मीन पर थी. सिंगूर और नंदीग्राम में "जनवाद" का निर्जन चेहरा सामने आया. परमाणु करार पर हुई तकरार ने लोक नाट्य नौटंकी और तमाशे की यादें जिंदा कर दीं. तसलीमा खाब्रून में छा गयीं. उनकी कृतियों से ज़्यादा उनकी खबरें बिकीं. यूँ हैरी पॉटर इतना बिका की प्रेमचंद और शरत भी जीवन भर नहीं बिकें होंगे. असल में यह बिकने का युग है. कौन कितने में बिकता है. लोग बिके. साहब खूब बिके आंसू बहा के बिके . मंच पर चुम्बन दे के बिके. देखिये , कमाल! कहीं कोई नहीं मलाल. यह है बिकना . सम्पूर्ण विक्रय. तन से आत्मा तक का डिस्काउंट सेल.
धोनी ने धमाल किया क्रिकेट में. नेताओं ने भी बीस-बीस के अंदाज़ में बटोरा माल. विदाई की बेला में जिसको जहाँ जो दिखा बटोरा. आख़िर बीस-बीस का संदेश क्या है? जो गेंद मिले मारो और अपना भविष्य सँवारों. सेंसेक्स भी खूब उछला. अफ्रीकन पिचों की तरह. अम्बानी ने शाहजहाँ की बराबरी की. दो सौ छप्पन करोड़ का प्लेन पत्नी को गिफ्ट दे कर. यह है खालिस शाही अंदाज़. कितने स्कूल , कितने अस्पताल खुलते इतने रुपये में. यही है उदारीकरण. जो अब जा रहा है उधारीकरण की तरफ. यूँ अरुण नायर और लिज़ हर्ले की शादी का रीटेक भी काफी प्रेरणास्पद रहा. उधर बेगानी शादी में मीडिया प्रतीक्षा के बाहर डंडे और धक्के खाता प्रतीक्षारत रहा. नई साल में एक शहर में तीस लाख की दारू पी गई तो मुम्बई में नब्बे लाख का ठुमका लगाया सिने तारिकाओं ने. उससे पता चलता है हम कितने खुश हैं. कितने समृद्ध एवं सांस्कृतिक. अब आप नंदीग्राम, सिंगूर नर्मदा डूब क्षेत्रों की ओर मत झांकिए. हम चाहेंगे सन २००८ में यह सब न हो. सिर्फ़ ठुमकें ही ठुमकें हों. नच ही नच हो. मस्ती ही मस्ती हो और सस्ती पे सस्ती हो....

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