इस बार होली का नज़ारा ही अलग था। ढोल और चंग की आपके साथ साथ माफ़ी के स्वर भी हवा में गूंज रहे थे। रंगों और पिचकारियों की दुकानों पर - हमें माफ़ करें, माफ़ी मांगें और.......सुखी रहे जैसे स्टीकर और पोस्टर लटक रहे थे। सरकार ने निर्णय लिया था की होली का पावन त्यौहार इस बार माफ़ी के राष्ट्रिय सप्ताह के रूप में मनाया जाएगा। इसके पीछे तर्क यह दिया जा रहा था कि जिस होली मन की मलिनता से मुक्ति का त्यौहार है वैसे ही माफ़ी मांगने से आत्मा का प्रक्षालन हो जाता है। विभिन्न विभागों को माफ़ी अभियान सफल बनाने के कड़े निर्देश दिए गए थे।
तभी अचानक सुबह-सुबह मेरे पड़ौसी शर्मा जी सपरिवार आ धमके। मैं कुछ कहता, इससे पहले ही उन्होंने मेरे चरण पकड़ लिए। मैंने कहा भाईसाहब मामला क्या है? इस बीच भाभीजी हस्तक्षेप कतरी हुई बोली - आप हमें बस माफ़ कर दीजिये। शर्मा जी माफ़ी मांगने के ज़बर्दस्त मूड में थे। जरा सी कुर्सी को ठोकर क्या लग गई कि उससे भी माफ़ी मांगने लगे। मैंने उनके लगातार ङिफेन्सिव स्ट्रोक्स को देखते हुए उन्हें माफ़ करना ही उचित समझा। मेरे माफ़ करते ही वह चहक उठे - दरअसल मामला क्या था कि आज से चौदह साल पहले मेरी श्रीमती जी ने आपके बच्चे का कान उमेठा था। अब वह ज़रा इतनी ज़ोर से उमेठा कि उसे शान्ति कि कोई बात समझ नहीं आती। उसकी श्रवण शक्ति तो हम नहीं लौटा सकते लेकिन माफ़ी तो मांग ही सकते हैं ना ! मैंने शर्मा जी रहने दीजिये आप भला किस-किस बात कि माफ़ी माँगेंगे। मेरे आँगन के पूर्वी दरवाज़े को भला किसने ध्वस्त किया था ? शर्मा जी बोले हम तो उसके लिए भी माफ़ी मांगने को तैयार हैं। हमारा तो सिद्धांत ही है कि बड़े क्षमा करते रहें और छोटे अपराध करते रहें।
शर्मा जी विदा हुए ही थे कि मौहल्ले के चन्दा मांगने वाले लड़के आ पहुंचे मैंने माफ़ी मंगनी चाही उससे पहले वे शुरू हो गए - " अंकल माफ़ करें पिछली बार हमने चन्दा भी लिया लेकिन प्रसाद नहीं पहुंचा पाए। ...........इस बार ऐसा नहीं होगा। यदि प्रसाद नहीं पहुंचा तो हम अडवांस में माफ़ी मांग लेते हैं। " माफ़ी के इस अनूठे अभियान की हठ ही निराली थी। एक दिन टेम्पो में किसी ने मेरा बटुआ मार लिया और जेब में चिट छोड़ दी - " माफ़ करें! और यात्रा में चौकस रहा करें। " अपराध की इस संस्कारशीलता से मैं अभिभूत हो उठा।
उधर यातायात पुलिस भी माफ़ी सप्ताह का आयोजन कर रही थी। उबड़- खाबड़ सड़कों के किनारे बोर्ड टांग दिए गए थे - " कष्ट के लिए माफ़ करें आपकी यात्रा शुभ हो। " स्कूल, कॉलेजों में माफिनुमा कविता पाठ और भाषण प्रतियोगिताएं आयोजित की जा रही थी। महिला पत्रिकाओं ने भी कॉलम शुरू किए थे- जब मैंने माफ़ी मांगी, माफ़ी का रंग आदि आदि। आज़ादी के स्वर्ण जयंती वर्ष में माफ़ी कार्यक्रमों का आयोजन ऐसा लग रहा था जैसे कोई कड़ी धुप तले कांप रहा हो। एक दिन सुबह मैंने ट्रंक कॉल बुक कराया। उधर से क्रॉस टॉक हो रही थी। शिकायत करने पर ऑपरेटर का मधुर स्वर उभरा - " माफ़ करें सर, क्रॉस के बारे में हम कुछ भी कर पाने में असमर्थ हैं। दिस इस कैजुअल प्रॉब्लम ......... । "
लोग माफ़ी की टी-शर्ट पहनकर धड़ल्ले से घूमते और उत्पात मचाते। एक लड़की ने एक वृद्ध के टक्कर मार दी और माफ़ी का कार्ड फेंक मुस्कुराती हुई चल दी। माफ़ी अभियान के कारण जनता का आत्मविश्वास लौट रहा था और ग्लानि बोध समाप्त हो रहा था। हत्यारे राजनीतिक दलों में ऎसी गर्वीली मुस्कान से लौट रहे थे मानो तोरण मारने जा रहे हों। वनवास भोग रहे नेताजी भी वापस जाजम बिछाने में व्यस्त थे।
माफ़ी एक राष्ट्रीय बहस का विषय हो गई थी। कुछ विचारकों का विश्वास था कि मांगते ही आप हल्का महसूस करते हैं और चिट फिर पहले जैसी कारगुजारियों के लिए स्वतंत्र हो जाता है। उधर दूसरे विचारक माफ़ी के पीछे सीपी लहर तलाश रहे थे।
मनोविश्लेषकों का मत था कि माफ़ी मांगने से सिल के दौरे पड़ने की संभावना पच्चीस प्रतिशत तक कम हो जाती है। उनका कहना था कि शुरुआत घर में ही करनी चाहिए और पति-पत्नी खुले दिल से एक दूसरे से दिन में दो - चार बार माफ़ी मांगें। होली की सुबह मैंने श्रीमती जी से निवेदन किया ......." माफ़ करती हो तो तुमसे कुछ कहूं ,........इस बार तुम्हारी क्वारी सहेली से होली खेलने की बड़ी कामना है। " वह हंसती हुई बोली - " इसमें सकुचाने की क्या बात है आप तो ख़ुद ही घर में दुबके रहते हैं । " मैं दुबारा माफ़ी मांगने के विचार में था कि उन्होंने दल बल सहित मुझ पर रंग कर्म संपन्न कर दिया। मैं भला क्या करता। उनके हाथों में माफ़ी कि तख्तियां जो थीं।
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