हमारी शस्य-श्यामला भूमि पर कश्मीर से कन्याकुमारी तक तीन जीव सर्व-सुलभ हैं - मच्छर, बाबू और भ्रष्टाचार। भ्रष्टाचार को जीव मानने का कारण यह है कि पहले दो की तरह यह भी चलता है, फिरता है, पनपता है , और अनुकूल वातावरण मिलने पर श्वास भी लेता है। यूँ तो मच्छर, बाबू, भ्रष्टाचार में और भी बहुत -सी समानताएं होती हैं। जिस तरह मच्छर परजीवी है उसी तरह "बाबू" भी दूसरों की आय में अपना हिस्सा (कमीशन) सर्वाधिकार समझता है।
कबीर के शब्दों में -"पुहुप बांस ते पाँतरा" अर्थात् बाबू सूक्ष्म होकर भी कण-कण में, ऑफिस में, फैक्ट्री में, स्कूल में व्याप्त जीव हैं। कहते हैं कोबरा का काटा पानी नहीं माँग सकता। मगर बाबू का काटा पानी पास होने पर भी नहीं पी सकता। आज किसी भी परिवार में अफसर बन जान उतनी प्रसन्नता की बात नहीं मानी जाती जितनी की किसी उपजाऊ विभाग में बाबू बन जाना। यूँ बाबू जिसे हम "क्लर्क" कहते हैं, वर्त्तमान शासन को लॉड मैकाले की देन है परन्तु इससे पहले गुप्त युग में इन्हें "दिविर" और मुग़ल युग में "कारकुन" के नाम से जाना जाता था। इस तरह हम देखते हैं कि बाबू संस्कृति की परम्परा काफी पुष्ट एवं प्राचीन है। समाज के इस वर्ग ने अपने कुछ प्रतिभा पुत्रों की वजह से समाज में शीघ्र ही अपनी अलग पहचान बना ली है। बड़े से बड़े अधिकारी एवं प्रतिष्ठित व्यक्ति को वो सम्मान हासिल नहीं जो एक बाबू को प्राप्त है। बाबू हमारे नौकरशाही तंत्र का वह नट बोल्ट है जिसके बिना प्रशासन की कतार गाड़ी आगे बढ़ ही नहीं सकती।
लोक निर्माण यातायात ,कचहरी ,आबकारी इत्यादी विभागों में बाबू परम सौभाग्य का विषय माना जाता है। कड़ी साधना ,जोड़-तोड़ की सुरंगों को पार करके ही उपर्युक्त वर्णित परम पद प्राप्त होते हैं कुछ बाबू बहुमुखी प्रतिभा के धनी होते हैं । ऐसे बाबू अपने मूल्कर्म को छोड़कर अपने समस्त कर्म कार्यालय में ही सम्पन्न करते हैं चाय-पान, गबन,सुरापान, से लेकर गोरस पान तक उनका क्षेत्र विस्तृत होता है।
एक अनुभवी बाबू के अनुसार सबसे अच्छा बाबू वह है जो अपनी सीट को छोड़कर ,अन्य सब जगहों पर उपलब्ध होता है। ऑफिस नोट डालना ,फ़ाइल दबाना ,रकम रोकना,चक्कर देना आदि कुछ ऐसे कर्म हैं। गड्ढे में धंसी आंखें ,पान से रची थूथन और खालिस बनावटी मुस्कान ओढे बाबू चाय पान की थड़ियों पर आपके स्वागतार्थ हर पल तैयार है ।
बाबू - मनोविज्ञान के पारखियों के अनुसार यह अत्यंत असंयमित प्रकृति का जीव है। समय और परिस्थिति के अनुसार रंग बदलने के कारण कुछ जीव वैज्ञानिक इसे गिरगिट के वंश "केलोटिस" में रखना चाहते हैं। खैर ,यह विवाद का विषय हो सकता है। बाबू दंशित कई भुक्त - भोगियों के अनुसार बाबू के सम्पर्क में आते ही जो सावधानी अपेक्षित है वह यह है कि यथासंभव चित्त को शांत बनाए रखें एवं धैर्य से काम लें वरना सारे किये धरे पर पानी फिर सकता है। हो सके तो "बाबुओं" से मेलजोल बढाएं व उनकी रुचियों के अनुरूप स्वयं को ढालने का प्रयत्न करें। उनके साथ उठें-बैठें , खाएं-पीएँ और पूरी गंभीरता से उनके फूहड़ मज़ाकों में भाग लें।
यदि आप इन अचूक नुस्खों का प्रयोग करें तो निश्चय ही न केवल आपके मनोरथ पूर्ण होंगे बल्कि आप दूसरों के फटे में टाँग दाल अपने अहम की तुष्टि भी कर सकेंगे। बाबुओं के पद के लिए युवाओं में बढ़ते आकर्षण को देखकर वह दिन दूर नहीं जब सरकार को "अखिल भारतीय बाबू आयोग" का गठन कर बाबुओं की शोचनीय ,आर्थिक ,सामाजिक स्थिति पर विचार करना पड़ेगा। प्रशासन की इस सबसे महत्वपूर्ण इकाई को हाशिए पर धकेलने का प्रयास अब और सफल नहीं होगा। बाबू यूनियन के नेता गुप्ता जी का कहना है कि - आज "बाबू सेवा" का राष्ट्रीयकरण करने की महती आवश्यकता है। उनके विचार में इसके लिए समय समय पर"अखिल भारतीय कार्यशालाओं " का आयोजन किया जाना चाहिए ताकि उत्तर और दक्षिण, पूर्व और पश्चिम के बाबू एक दूसरे को "बाबू गिरी के नवीनतम गुर सिखा सकें।" इससे न केवल सेवाओं की गुणवत्ता बढेगी बल्कि बाबू पद की महत्ता भी बढेगी। गुप्ता जी के कथन को सोचते हुए मैं अपनी छ: महीनों से अटकी फ़ाइल को बगल में दबाये हुए घर लौट आता हूँ और मेरे मन में यह पद लगातार गूंजता रहता है कि "बाबू तुम बड़भागी"
वाह भाई! लगता है कि जीव विज्ञान की पढाई आपने ठीक से की है.
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