शुक्रवार, 14 दिसंबर 2007

सर्द रात में मेहनतकश बच्चे (कविता)

सर्द रात के तीसरे प्रहर में
ठिठुरते हुए बच्चों के पास
नहीं है कुछ भी
दुर्बल काया
रूखे बालों
फटे नोटों के सिवा कुछ भी नहीं
नहीं हैं उनके पास किताबें
तन ढकने को कपड़ा
बढ़िया जूते ,चोकलेट भी नहीं
उनके दुःख
उनके कद से बढ़े हैं
उनके अनुभव
उनकी उम्र से
उनके हौसले उनके सफर से बढ़े
पता नहीं कल क्या होगा उनका
दब जायेंगे वैभव की चट्टान तले
या थक जायेंगे राह में
श्रम की छैनी से उकेरते हुए आस्थाएँ
क्या पता कब तक
वे भीगते रहेंगे बारिश तले
बहुत निष्टुर हैं उनकी माताएँ
छीन लेटी हैं तार -तार रजाई
सुई सी चुभती हवा में
खड़े हो जाते हैं चौपाए जैसे
बैठ जाते हैं उँकड़ू मौका पाते ही
रोटी खाते हैं चपर -चपर
एक महानायक की क्षमता होते हुए भी
उन्होने स्वीकारा है सेवकत्व
तुम्हारे समाज के रथ में
पहियों की तरह
तुम्हारी शब्दावली में गालियों की तरह

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