रविवार, 30 नवंबर 2008

कुछ लघु पत्रिकाओं के विषय में - दो

पाखी से ही अपनी बात शुरू करूंगा । विश्वनाथ त्रिपाठी जी की आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की जीवनी का अंश प्रभावी है । एक लेखक के संघर्ष का ईमानदार चित्रण किया गया है । आचार्य द्विवेदी जी की वक्तृता का उल्लेख ,उनकी कार्य के प्रति लगन अनुकर्णीय है । अशोक अंजुम ,जीतेन्द्र श्रीवास्तव की कविताएँ बहुत अच्छी हैं । विनोद अनुपम की 'वेलकम टू सज्जनपुर ' की समीक्षा हमारे सामने एक प्रश्न छोड़ती है सार्थक सिनेमा को आज भी अच्छे दर्शक मिल रहे हैं । आवश्यकता है तो सही प्रयासों की । सन २००८ के गाँव का चित्रण मार्मिक और यथार्थ है । कुमार मुकुल का मीमांसा कालम विजेंद्र ,विष्णु खरे , मंगलेश डबराल की किताब घर सीरीज़ की समीक्षा करता है । यदि कुछ नए और कम परिचित चेहरों को भी भविष्य में चुने तो बेहतर हो । मैत्रेयी पुष्पा और इमरोज़ ने बेबाकी से अपने विचार रखे हैं । लेकिन शीर्षक "टाक ओन टेबल "अखरता है क्या हिन्दी में शीर्षकों का अभाव है ? इस नकलीपन से बचें । पत्रिका के प्रति आपकी नियत ठीक है बस लक्ष्य सही रखें तो मंजिल मिल जायेगी ।

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