गुरुवार, 6 नवंबर 2008

चाँद ,कवि और अभियान (व्यंग्य )

चाँद पर पहुंचना इन्सान की पुरानी ख्वाहिश रही है । चाँद को लेकर कवि गण न जाने क्या -क्या लिखते रहे । किसी ने "चन्द बदन मृग लोचनी बाबा कही कही जाए " लिखा तो किसी ने "चौहदवीं का चाँद हो या आफ़ताब हो "लिख डाला । कोई महानुभाव "चाँद जैसे मुखड़े पर बिंदिया सितारा "सजाते रहे । कहने का लब्बो -लुआब यह है की कवियों और चाँद का रिश्ता पुराना है । इस चक्कर में कई कवियों की चाँद की हालत चाँद की तरह बंज़र और आभाहीन हो गयी । विज्ञानं हमेशा से साहित्य की कल्पना पर चोट करता रहा है । आज किसी सुन्दरी को चंद्र मुखी कहना खतरे से खाली नही है । करोड़ों रूपये बहा कर हम भला क्या तीर मार लेंगे ? धरती को तो हमने रहने लायक छोड़ा नहीं । चले हैं चाँद पर दुनिया बसाने ,क्या वहां भी जाकर कालोनियां काटेंगें ? नफ़रत ,हिंसा ,साम्प्रदायिकता , जातिवाद की फ़सलें क्या वहाँ भी बोनी हैं ?किसी को तो छोड़ो मेरे यारों । पहले चाँद हमारे लिए अजूबा था । हमारा मामा था । एक बूड़ीनानी चरखा कातती थी । अब हम चाँद पर अपनी जरूरतों की फसल काटना चाहते हैं । कवि ध्वस्त हैं , वैज्ञानिक मस्त । चाँद असमंजस में है कि कहीं कल मेरा हाल भी बेहाल हो कर पृथ्वी जैसा तो नही हो जाएगा ?

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