सोमवार, 5 जनवरी 2009
ऐसे लिक्खाडों से बचाओ !
क्या साहित्यकारों को एक तराजू में तोला जा सकता है ? क्या वे कभी एक मत हो सकते हैं ? आप कहेंगे कि चेतनाशील और बौद्धिक लोग हैं इसलिए एक राय हो नही सकते हैं । साहित्यकारों का संकट यह कि यदि पत्रिकाएँ पचास हैं तो लेखक भी हज़ार । कभी -न-कभी छपने का अवसर मिल ही जाता है और जो छप गया समझो अमर हो गया । महान लेखक हो गया । अब आप उसको नही समझा सकते । अब वो साहित्य का उत्थान कर के ही दम लेगा । अपनी रचनाओं के उल्का पात से धरा का कल्याण कर के दम लेगा । इधर हर थोड़ा सुविधा संपन्न लेखक एक पत्रिका निकलने पर उतारू है । सब के सब भारतेंदु के वारिस बनने पर तुले हैं । प्रसार संख्या के लोभ में कचरा साहित्य परोसा जा रहा है । इससे साहित्य की जन छवि भी बिगड़ रही है । लेकिन उस महान कलमकार का क्या करें जो किसी की सुनने को तैयार नही ,गुनने को तैयार नही । वो तो सिर पर अपनी डायरी बाँध निकल पड़ा है । बचिए आ रहा वो आपकी तरफ़ उड़ेलेगा अपनी मानसिक उल्टी आपके विचार रूपी वस्त्रों पर । सावधान ! आ रहा है साहित्य का नव पहलवान आपको चारों खाने चित्त करने ।
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अरे भई तो आप इंतज़ार में है आप भी मैदाँ में आयिए ना! मज़ाककर कर रहा हूँ बिल्कुल सच लिखा है
जवाब देंहटाएं---यदि समय हो तो पधारें---
चाँद, बादल और शाम पर आपका स्वागत है|
जवाब देंहटाएंभई वाह, क्या खूब लपेटा है.. आपने चतुर्वेदी जी !
अगर हेडमास्टर बन कर देखा जाए तो आपकी बात ठीक है, लेकिन जरा सा उदार हो कर सोचें चतुर्वेदीजी । आज का प्रायः हर अच्छा लिखने वाला आरंभ में बुरा या कम अच्छा ही लिखता था । साहित्य साधना का भी मामला है । आज का कमजोर यदि लगा रहेगा तभी तो उम्मीद बनेगी ।
जवाब देंहटाएंबहरहाल, आपका लेखन पसंद आया । इसे बनाए रखिये ।
कभी फुरसत मिले तो संपर्क करें --
jawahar choudhary.blogspot.com