शनिवार, 19 सितंबर 2009

हम भी हैं विकास की राह में ( नयी दुनिया सण्डे में १३सित०९ को प्रकाशित व्यंग्य)

अभी कल ही अखबार में खबर पढ़ी कि स्वाइन फ्लू का पहला रोगी आखिर हमारे शहर में भी मिल गया । सच मानिए कि दिल को इतनी तसल्ली मिली कि शब्दों में बयान करना संभव नहीं है । चलो , दुनिया को मुँह दिखाने के काबिल तो बचे हम वरना हीनता बोध से मरे जा रहे थे । रोज अखबारों में समाचार छप रहे थे कि फलां शहर में स्वाइन फ्लू के इतने रोगी मिले , फलां में उतने । लेकिन हमारे शहर का कहीं नामो निशान नहीं । क्या गर्व करें हम अपने शहर के विकास पर , क्या करें तुलना महानगरों से । एक भी महानगरीय लक्षण नहीं । न चलती गाड़ी में बलात्कार , न फुटपाथ पर सोए लोगों पर पहिया मर्दन और न क्लब या बार में गोलीकांड । ऊपर से सपना महानगर कहलाने का । अरे महानगर कहलाने का इतना शौक रखते हो न तो उतना बड़ा सीना भी रखो जख्म खाने का । कोई यूं ही सेंत – मेंत में महानगर नहीं बन जाता । कितना कुछ पचाना पड़ता है उसके लिए , कितने खून और अपमान के घूंट पीने पड़ते हैं। संवेदनाओं की भ्रूण हत्या करने के लिए कितनी मोटी खाल करनी पड़ती है । तब जाके , इतने अथक बलिदानों के बाद किसी महानगर का निर्माण हो पाता है । चाहते सब हैं कि शहर को महानगर की सुविधाएं दी जाएं लेकिन ढर्रा वही कस्बाई । मानसिकता वही गंवई । आज भी उत्सव को मनाने के वही पुराने तरीके – मेले , प्रदर्शनी , हाट । थोड़ा तो ऊपर उठो भाई , कार्निवाल ,मेगा फेयर , ट्रेड फेयर तक तो आओ । वही संकरे बाजार , अड़ियल गायें - भैंसें , कतारबद्ध चलते सुअर , जवाबी कव्वाली करते श्वान , तंग गलियां , उनमें मोल- तोल को अड़े ग्राहक ।
तुम क्या खाक महानगर का चरित्र अपना पाओगे । सौ रुपए कार पार्किंग के देने पर तो तुम्हें रात भर नींद नहीं आ पाती । एक्सीलेटर पर चढ़ते-उतरते समय तुम्हारा बी. पी. लो हो जाता है । एसी की हवा खा कर लौट-लौट आते हो । दस रुपए की चीज पचास में लेते समय पिचहत्तर बार सोचते हो । एक म़ॉल को झेल नहीं पा रहे बनेंगे महानगर । महानगर बनने के लिए सोच विस्तृत रखनी पड़ती है । इतनी छोटी-छोटी बातों पर ध्यान नहीं देना पड़ता । प्रगति चाहते हो तो नजरिया बदलो । प्रगति कोई जंगली घास नहीं है जो यूं ही घर के लान में उग आएगी । वो तो अमरीकन घास है जो वहीं के रास्ते से और उसी संस्कृति के कारपेट पर चलती हुयी आएगी । देशी और खांटी अंदाज बदलना होगा । वीरता और प्रेम के मध्यकालीन तरीके अपनाते हुए तुम कत्तई महानगर नहीं बन सकते । चाकूबाजी ,तलवारबाजी से ऊपर उठो और देशी कट्टे , बम वगैरह की सोचो । पार्क में सस्ते पापकार्न खिलाने और मुंह पर डाटा बाँध घूमने से प्रेम निर्वहन नहीं हो सकता । प्रेम प्रकटन के नए तरीके अपनाओ । रेस्त्रां , प्राइवेट केबिन , पार्लर आखिर किसलिए हैं । वहां मुँह खोल के जाओ , मुँह छिपाने वाला काम ही क्यों करते हो । महानगरीय चरित्र तो तभी बन पाएगा शहर का । यद्यपि इधर कुछ आस बँधी है इस दिशा में । मुझे लग रहा है कि वो दिन दूर नहीं जब हम भी होंगे विकसित महानगरों की श्रेणी में । पिछले महीने जब देश में सीरियल बम बलास्ट हुए तो हम गहरे सदमे में थे । अहमदाबाद , सूरत , जयपुर , लखनऊ सब सुर्खियों में लेकिन हमारे शहर का कहीं कोई जिक्र नहीं । हाय , क्या यही दिन देखने को जिंदा थे हम । क्या हमारे नगर की धरती वीरों से खाली हो गयी । लेकिन राहत की साँस मिली जब अगले दिन ये खबर छपी कि एक मुख्य आतंकवादी हमारे शहर में भी कुछ महीनों रह कर गया था और उसने षडयंत्र की रूपरेखा भी यहीं बनायी थी । हम धन्य हुए , हमारा शहर देश के किसी काम तो आ सका । अच्छाई नहीं तो बुराई में ही सही । योगदान तो योगदान है उसे नकारना तो कृतघ्नता है ।
हमें पता चला कि बड़े शहरों में लोग बड़ी बीमारियों से मरते हैं जैसे – एड्स, डेंगू , हेपीटाइटस बी से । हमारे शहर के लोग अभी वही मलेरिया , कैंसर , टीबी से मर कर शहर की मजबूत स्वास्थ्य सेवा की इज्जत खराब कर रहे थे । लेकिन यहाँ भी हमारी ऊपर वाले सुनी और एड्स का पहला रोगी हमारे शहर में मिला । न केवल रोगी मिला बल्कि बाद में तो एच . आई. वी. पाजटिव वालों की लाइन लग गयी। हमें अब लग रहा है कि हम भी कहीं खड़े हैं विकास की राह में । अब दिन दहाड़े गोलीकांड , अपहरण , जबरिया प्रेम प्रदर्शन ,घोटाले जैसी घटनाएं होने लगी हैं । तलाक,गर्भपात के केस बढ़ रहे हैं । तो मेरा खोया विश्वास लौट रहा है कि हम विकास की ठीक दिशा में अग्रसर हो रहे हैं । असल में कल ही एक महानगरीय रिश्तेदार मुँह पर मास्क लगाए हुए मेरे घर अवतरित हुए। उन्होंने आते ही स्वाइन फ्लू का हाल पूछा । हम सकपका गए । भला क्या बताते । वे बुदबुदाए – पुअर ओल्ड टाउन । लेकिन अब स्वाइन फ्लू के पहले रोगी ने मेरा ये संकोच दूर कर दिया है । हम कह सकते हैं कि हम भी विकास की राह पर पर दौड़ रहे हैं । वैसे आप भी चाहें तो आप भी ऐसा कह सकते हैं क्योंकि यही कमोबेश कहानी है हर छोटे – बड़े शहर की ।

1 टिप्पणी:

  1. यदि विकसित शहर की ये पहचाने होती है तो मुझे गर्व है की हम विकाशशील शहर में रहते है !!
    अफ़सोस है की हमारे शहर में भी ये सब हो रहा है !!!

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