पुराने चेहरों पर झुर्रियां पड़ चुकी थीं । तरह-तरह की झुर्रियां असफलता की ,बदनामी की,कुंठा की झुर्रियां । कब तक काम चलाएं पुराने चेहरों से भला । जनता भी ऊब चुकी थी उनसे । वही खीसें निपोरने का पुराना ढंग , वही घिसे-पिटे डॉयलाग,वही हाथ जोड़ने की मध्ययुगीन शैली । वही पुराना छौंक नयी दाल में । जाति,धर्म ,मंदिर-मस्जिद,आरक्षण की बघार । सूंघते-सूंघते लोग उकता गए थे । उन्हें कुछ नयापन चाहिए था । इंस्टेट टाइप का । लेकिन बूढ़े हाथों ,थके कदमों और पुराने सोच में ये सब कैसे संभव था । इसलिए सब तरफ नए चेहरों की मांग उठने लगी । किसी ने कहा अब इनसे दौड़ा नही जाता इन्हें रहने दें । किसी ने मांग उठायी कि इनके द्वारा उठाए गए मुद्दों में अब आकर्षण नहीं रहा , वे पुराने पड़ गए हैं । तो दूसरी ओर शोर उठने लगा कि नया खून चाहिए पार्टी में । अब यकायक नया खून कहां से लाया जाए । क्योंकि एक तो काफी मात्रा में खून इंफेक्शन के चलते पानी हो चुका था दूसरे जो नया खून था भी उसमें समर्पण के हीमोग्लोबिन की भारी कमी थी । कैसे चढ़ा दे लाखों कार्यकर्ताओं को एकदम। बिना जाँचे परखे । धर्म संकट आ गया । उधर कई दावेदार झाड़-पोंछ कर खड़े हो गए थे कि हम में है नया खून , ले लीजिए जितना चाहें । चाहें तो जाँच करा लें । हम में है सामर्थ्य विरोधी का चक्का जाम करने की ।
नए चेहरों की तलाश कहां नही है भला । कुछ क्षेत्र लगातार नएपन को खोजते रहते हैं । उन्हें सदैव नए शिकार चाहिए होते हैं उनके नएपन की भूख कभी खत्म नही होती है पता नहीं उन्हें नये चेहरे चाहिए या नए मुर्गे जिनको रोज नए जायके के साथ चखा जा सके । बीमा कंपनिया , फाइनेंस दाता और इनामी स्कीम से आपका भाग्य बदलने वाले नित नएपन की खोज में रहते हैं इनके जैसा नवउपासक कोई ढूंढे से न मिलेगा आपको । नयी प्रतिभाओं को मंच प्रदान करने में इनका योगदान लघु पत्रिकाओं से भी अधिक है । फिल्म और खेल में नए चेहरों का रोना लगातार रोया जाता रहा है । नए लोग आते तो हैं लेकिन पुरानी बीमारियों से ग्रस्त उनका नयापन नौ दिन ही चल पाता है और फिर पुराने साज को ही ठोंक पीट कर बजाना पड़ता है । उधर कुछ नए चेहरे नए तौर-तरीकों से दावे कर रहे थे। कोई ताल ठोंक रहा था तो कोई ग्लैमर का तड़का लगा रहा था । ऐसा लगा मानों कई घोड़े एकसाथ हिनहिना उठे हों ।
लेकिन सवाल यही था कि इन पर सवारी गाँठने का भरोसा यकायक कैसे कर लें कहीं चारो खाने चित्त पटक दिया था तो । खैर अश्वशाला के वरिष्ठ प्रधान के पूर्ण आश्वासन के बाद एक अनुशासित चेहरे को छांटा गया । ये चेहरा संस्कारों में रचा-पगा था । संकेतों की भाषा को समझता था और विचारधारा की पगडंडी पर चलना जानता था। आखिर वो चेहरा मिल ही गया जिसकी लंबे अरसे से तलाश थी । अब सबने उसके कांधो पर सवारी करने की तैयारी कर ली है । बुजुर्ग आश्वस्त हैं चलो बचे हम । लहूलुहान हो रहा था उनका मुखमंडल । निष्क्रियता की धूल हटने का नाम ही नही ले रही थी । चुक गए का लेबल स्थायी रूप से चस्पा हो गया था । अब विश्रामोपरांत मंथन का पुनर्नवा खा वापिस आएंगे मैदान में ।
तब तक नए चेहरे आजमाएं अपना भाग्य । नए दशक में सब तरफ नए चेहरों की दरकार है। नए खिलाड़ी , नए हीरो , नए लेखक । जब सब कुछ इतना नवा-नवा हो तो पुरानों का ठहर के सांस ले लेना ही ठीक है । व्यर्थ की होड़ाहोड़ी में घुटने फुड़वाने से क्या फायदा । क्योंकि उम्र का दर्द जुबां के रास्ते कभी-न-कभी तो बाहर आता ही है । और निराशा के इस लावे से भला कौन झुलसना चाहता है ।
12 नवम्बर से 21 जनवरी के बीच कहाँ थे श्रीमान? फहले इस का हिसाब देना होगा फिर बधाई देंगे। रचनाकार प्रतियोगिता में चुने जाने के लिए।
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