शनिवार, 10 जुलाई 2010

मधुमती के दलित विशेषांक में प्रकाशित कविता

वे बांटते हैं खुशी

या भय

ये तुम जानो

उनके पास है नफरत का बारूद

और वे इस समय सफर में हैं

या मंजिल के करीब

ये किस को है पता

उन्हें नही मिला उचित हक

नही मिली भरपूर हंसी

और पेट भर पानी भी

वे नही हैं खुश अपने आप से

और न महामहिम आप से

आपके भाषणों में अपनी जगह ढूंढते-ढूंढते

थक कर सो गए हैं वे

मानेंगे नही वे आंकड़ों की बाजीगरी से

और कर्ज की पतली चाशनी से

मुरझाए सपनों के फूलों से

वे चल देंगे तो रूकेंगे नहीं

प्रलोभनों के ब्रेकरों से

वे जुनूनी हैं , थोड़े क्रोधी भी

वे क्या करेंगे कल

उखाड़ेंगे परंपराएं

ढहाएंगे अन्याय के पहाड़

या नया अध्याय लिखेंगे

कहां रुकेंगे ये तुम जानो

मैं तो बस इतना जानता हूं

मेरे दोस्त कि मेरा उनका कोई गहरा रिश्ता है

जब भी वे होते हैं बैचेन

मैं नींद से उठ जाता हूं

जब वे होते हैं मायूस

मैं एक ग्रास भी निगल नहीं पाता हूं

वे जब भी हर्षाएं हैं

मैंने झूम-झूम गीत गाए हैं

जबकि न वे मेरे सगे हैं न पराए हैं

क्या जाने किस रिश्ते से वे मेरी मज्जा में घुस आए हैं

उसी में खेले हैं , उसी में नहाए हैं

वो मेरे सोच की संतानें हैं

या मेरी चेतना के पाए हैं

क्या जाने क्या रिश्ता है मेरा उनसे आज भी

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